जॉन वॉकर ने तीली बनाई जो जमीन पर रगड़कर जलती थी। भारत में 1895 में निर्माण शुरू। पहली फैक्ट्री अहमदाबाद में, फिर कोलकाता में। स्वीडिश कं. ने शुरू की।
अविष्कार ब्रिटेन में 1827 में
आजकल लाइटर का ज़माना है पर माचिस का डिमांड और कारोबार ठीकठाक है। ग्रामीण इलाकों में आज भी आग जलाने के लिए लोग माचिस का इस्तेमाल करते हैं।
डिमांड
1950 में कीमत 5 पैसे थी। 1994 में 50 पैसे, 2007 में 1 रुपए व अब 2 रुपए हो गई है। इसका दाम बढ़ाने का फैसला ऑल इंडिया चैंबर ऑफ मैचेज शिवकाशी, तमिलनाडु द्वारा लिया जाता है।
दाम
माचिस के प्रत्येक बॉक्स में 50 तीलियां होती हैं। 600 माचिस डिब्बे का एक बंडल होता है। माचिस की डिब्बी दो तरह के बोर्ड से बनती है बाहरी और भीतरी बॉक्स बोर्ड।
बॉक्स
माचिस की तीलियों पर अत्यंत ज्वलनशील फॉस्फोरस का मसाला लगाया जाता है। साथ ही और 13 कच्चे माल जैसे मोम, कागज़, स्प्लिंट्स, पोटेशियम क्लोरेट, सल्फर आदि लगते हैं।
फॉस्फोरस
सबसे बड़ा माचिस उद्योग तमिलनाडु में है। 4 लाख लोग काम करते हैं। पहली माचिस फैक्ट्री शिवकाशी ने 1922 में लगाई गई। आज भी अधिकांशतया माचिस हाथ से महिलाओं द्वारा बनाई जाती हैं।
तमिलनाडु
माचिस बॉक्स बनाने की क्षमता के अनुसार भुगतान होता है। कीमत बढ़ने से कर्मचारियों की आय में बढ़ोतरी होती है। माचिस की फैक्ट्रियों में 90 फीसदी से अधिक महिलाएं कार्यरत हैं ।
भुगतान
माचिस बॉक्स बनाने की क्षमता के अनुसार भुगतान होता है। कीमत बढ़ने से कर्मचारियों की आय में बढ़ोतरी होती है। माचिस की फैक्ट्रियों में 90 फीसदी से अधिक महिलाएं कार्यरत हैं ।