लाइसेंस राज की झलक
स्टेट कंट्रोल से लाइसेंस राज को बढ़ावा
नेहरू वामपंथी विचारों से बहुत प्रभावित थे। 1927 में वे सोवियत संघ जाकर वहां का विकास देख कर बहुत प्रभावित हुए थे जिसमें पूरी तरह से स्टेट कंट्रोल था। पर उन्होंने भारत में मिक्सड इकोनॉमी को अपनाया। पंच वर्षीय योजनाओं को अपनाया गया। जिससे अनेक लाभ होने साथ लाइसेंस राज को बहुत बढ़ावा मिला।
राजगोपालाचारी और स्वतंत्र पार्टी का लाइसेंस राज का विरोध
लाइसेंस राज शब्द को सबसे पहले चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने दिया था, वो उद्योग व व्यापार पर सरकारी नियंत्रण और लाइसेंस के सख्त खिलाफ थे। उनकी मान्यता थी कि लाइसेंस परमिट राज भ्रष्टाचार को बढ़ावा देगा और अर्थव्यस्था में गतिरोध लाएगा। लाइसेंस परमिट राज के द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था पर कठोर नियंत्रण के विचारों को लेकर उन्होंने स्वतंत्र पार्टी को स्थापना की थी।
क्या पुराना दौर लौट सकता है ?
अनेक लोग यह चिंता करते हैं कि सरकार का हस्तक्षेप का पुराना दौर यानी लाइसेंस परमिट राज फिर वापिस आ रहा है। क्या लाइसेंस राज फिर वापिस आने वाला है। हमारी नई पीढ़ी को लाइसेंस राज के बारे में कुछ पता ही नहीं होगा, तो आइए इसकी कुछ झलक दिखलाते हैं।
लाइसेंस राज के उदाहरण
आपको कुछ और नमूने बताएं।आज यह नई पीढ़ी को चौंकाने वाला और हास्यास्पद भी लग सकता है।
इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं का निर्माण
. नेहरू, इंदिरा व राजीव के समय और पहले भी लाइसेंस कोटा राज में किसी विदेशी को यह अनुमति नहीं थी कि वह भारत आए और यहां इलेक्ट्रॉनिक वस्तुएं बनाएं। आयात पर प्रतिबंध था और निर्माण भारत की सरकारी कंपनियों द्वारा ही किया जाता था ।
हवाई अड्डों की बैगेज बेल्ट विदेशी वस्तुओं से भरी
यही वजह है कि कई राज्य सरकारों ने अपने यहां उपक्रम स्थापित कर लिए थे जो कोरिया से किट लाकर भारत में टेलीविजन और टू इन वन बनाते थे। पर मुसीबत यह थी कि इन्हें कोई खरीदना ही नहीं चाहता था और लोग प्रतीक्षा करते थे कि कोई अनिवासी भारतीय आए तो उससे ये वस्तुएं मंगाई जाए। उस समय हवाई अड्डे की बैगेज बेल्ट ऐसी चीजों से लदी रहती थी।
स्कूटर
- बजाज स्कूटर बुक कराने और मिलने में सालों लग जाते थे। कुछ लोग कन्या होते ही स्कूटर बुकिंग कर देते थे ताकि विवाह तक मिल जाए। ऐसा इसलिए था क्योंकि देश में मैन्युफैक्चरर बहुत कम बजाज व लैंब्रेटा थे और विदेश से न आयात की अनुमति थी और न ही विदेशियों को यहां फैक्ट्री लगाने का लाइसेंस मिलता था। मिडिल क्लास स्कूटर मिलने को भगवत कृपा समझा करता था।
कार
- कार फिएट थी या एंबेसडर। दो तीन रंग में ही मिलती थी। कार आयात करने पर 125% की ड्यूटी थी।
आयात
- अधिकांश वस्तुओं को आयात करने पर सीधे मनाही थी। आयात कोटा सरकार जारी करती थी। जो सामान्यतया आवश्यकता से बहुत कम रहता था। कोटा और लाइसेंस में भारी भ्रष्टाचार हुआ करता था। बड़ी रिश्वत देकर लाइसेंस प्राप्त करने वाला व्यापारी उस वस्तु की कालाबाजारी और जमाखोरी करके जनता को लूटा करता था।
सर्वाधिक टैरिफ वाला देश
- टैरिफ बहुत हाई होता था। 1985 में हम विश्व में सर्वाधिक टैरिफ वाले देशों में एक थे।
सार्वजनिक क्षेत्र को एकाधिकार
- अनेक क्षेत्रों पर व्यापार करने या निर्माण करने का अधिकार केवल सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को हुआ करता था।
उद्योग लगाना टेढ़ी खीर और रेड टेपिज्म हावी
- प्राइवेट सेक्टर को अनेक क्षेत्रों में काम करने की छूट नहीं थी। कोई जब बड़ा उद्योग लगाना चाहता था तो उसको ढेरों तरह के लाइसेंस लेने पड़ते थे। विदेश से कोई मशीन आयात करने की परमिशन मिलने में महीनों लग जाते थे।अगर आयातित मशीन को कोई पार्ट खराब हो जाता था तब उसे मंगाने में बहुत समय लग जाता था। तब तक फैक्ट्री बंद रहती थी और कामगार बेकार। सरकार ने ढेरों पाबंदियां उद्योग व व्यापार पर लगा रखी थी। अर्थव्यस्था पर रेड टेपिज्म हावी था।
लाइसेंस राज के गंभीर परिणाम
लाइसेंस परमिट राज से अनेक गंभीर परिणाम हुए। भ्रष्टाचार बहुत बढ़ गया। परमिट कोटा की बोली लगती थी। फिर वह कोटा पाने वाला व्यक्ति जनता को लूटता था। इससे नौकरशाही में भ्रष्टाचार बहुत बढ़ गया। एकाधिकार की प्रवृति खूब पनप गई थी। प्रतियोगिता समाप्त हो गई। जिसके कारण प्रोडक्ट्स की गुणवत्ता प्रभावित हुई। उपभोक्ता घटिया वस्तु अधिक मूल्य पर लेने के लिए मजबूर हो गए थे।
दक्षता भी प्रभावित हुई। शोध व विकास पर ध्यान नहीं दिया गया जिससे हम गुणवत्ता में विश्व के अनेक देशों से पिछड़ गए। इनोवेशन पर जोर नहीं रहा। इन कारणों से एंटरप्रेन्योरशिप को गंभीर आघात लगा। इन वजहों से हमारा विकास तेज गति से नहीं हो पाया और हमारी इकोनॉमी में एक ठहराव सा आ गया।
विदेशी मुद्रा का रोना
विदेशी मुद्रा के बारे में तो और भी बुरा हाल था। समाजवाद के नाम पर कांग्रेस ने भारतीयों को पहले 8 डॉलर और बाद में 20 डॉलर रखने की तक सीमित रखा यानी भारतीय विदेश यात्रा पर इतनी विदेशी मुद्रा लेकर जा सकते थे। हर श्रेणी के लिए एक तय सीमा थी। कोटे और प्रमाण पत्र के लिए रिजर्व बैंक जाना होता था ।
इसी राशि में होटल खाना, आना जाना, सब शामिल था। क्रेडिट कार्ड केवल भारत व नेपाल में काम करते थे। जाहिर है की विदेश में भारतीय कार तक किराए पर नहीं ले पाते थे। पासपोर्ट के आखिरी पन्ने पर इस बात का पूरा ब्यौरा दर्ज किया जाता था कि हम कितने पैसे, सामान आदि ले जा रहे हैं, वापसी पर इसका मिलान किया जाता था।
1991 वॉटर शेड ईयर
सन 1991 के सुधार के बाद यह सब बंद हो गया।
क्रेडिट कार्ड सुधार
भारतीय क्रेडिट कार्डों का विदेश में स्वीकृत होना एक बड़ा सुधार था और इससे भारत की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा बढ़ी ।वाजपेई सरकार ने फरवरी 2004 में भारतीयों को विदेशों में एक खास सीमा तक डॉलर में निवेश या व्यय करने या उसे वापस देश भेजने की इजाजत दी थी ,जो अब बढ़कर 2.5 लाख डॉलर हो चुकी है।
धन होकर भी भिखारी कैसे?
आज अगर आप सोचिए तो यह कितना भयावह और बुरा दौर था । यह इसको देख कर आज का हिंदुस्तानी तो यह कल्पना भी नहीं कर सकता था कि बुजुर्गों ने क्या-क्या झेला है और आज वह कितना स्वतंत्र है। विदेश जाना और वहां अन्य देशों के निवासियों की तरह शान से पैसा खर्च करना कितना आसान हो गया है जबकि एक समय ऐसा था कि जब अनेक भारतीयों के पास पैसा हुआ करता था लेकिन तब भी विदेश में उन्हें भिखारी की तरह होकर रहना पड़ता था। यह व्यक्ति और देश के लिए कितने कष्ट और अपमान की बात थी।
नरसिम्हा राव के आभारी
जब इतने बंधन हों तब देश तेज तरक्की कैसे कर सकता था। देश को प्रधानमंत्री नरसिमहराव का बहुत आभारी होना चाहिए क्योंकि उन्होंने अनुभव और ज्ञान से सोच की धारा को पलट दिया।यह क्रांतिकारी परिवर्तन था। मनमोहन सिंह को लेकर आए और फ्री हैंड दिया। जब वे इन क्रांतिकारी सुधारों को करने में हिचकिचाए, तब पी एम राव ने अपने वित्त मंत्री मनमोहन सिंह से कहा कि आप करो, असफलता की सारी जिम्मेदारी हमारी होगी।
चीन में बदलाव पहले
साम्यवादी होते हुए भी चीन ने हमसे 15 साल पहले यह राह पकड़ ली थी। उसने समझ लिया था कि पूंजीवाद के अनेक विचारों को लागू किए बिना तेज विकास संभव नहीं है। इसीलिए उसने अपने यहां पूंजीवादी देशों के उद्यमियों को इतनी अधिक सुविधाएं दे दी जो उन्हें अधिकांश पूंजीवादी देशों में भी उस समय नहीं मिल रही थी। इसीलिए चीन हमसे 15 साल पहले ही विकास के पथ तेजी से दौड़ पड़ा और आज विश्व की फैक्ट्री और आर्थिक ताकत बन गया है।
40 साल तक गले में लटका पत्थर हमने 1991 में उतार फेंका
लाइसेंस परमिट राज गले का पत्थर बन गया था जिसे कुछ लोगों की अव्यावहारिक नीतियों के कारण 1951 से 1991 यानी 40 वर्षों तक देश के गले में लटकाए रखा गया। लाइसेंस परमिट राज के इस बोझ को 1991 के बाद उतार फेंक करदेश तेजी से विकास के पथ पर दौड़ पड़ा।