खेती के मूलाधार केंचुओं की करुण कहानी ?
मिट्टी के मौन मित्र केंचुआ
किसान का सबसे बड़ा मित्र है केचुआ है । भूमि को स्वस्थ रखने के लिए केंचुआ बेहद उपयोगी है । मिट्टी के मौन मित्र केंचुए भूमि की जितनी अच्छी और लगातार जुताई करते रहते हैं । वह किसी भी आधुनिक यंत्र या विधि से संभव नहीं है।
उर्वर मिट्टी के निर्माण में लगातार लगे
केंचुआ धरती के ऊपर के कार्बनिक पदार्थों और धरती के भीतर के पोषक तत्वों व खनिज पदार्थों को खाकर भूमि की सतह पर आकर मल त्याग करके उर्वर मिट्टी के निर्माण में लगातार लगे रहते हैं। इससे मिट्टी की वायु संचरण क्षमता एवं जल धारण क्षमता बहुत बढ़ जाती है जिससे भूमि की संरचना में सुधार होता है। इस प्रकार केचुआ भूमि की उर्वरता, उत्पादकता, भौतिक,रासायनिक और जैविक गुणों को अनुकूल बनाने में बहुत मददगार है।
मिट्टी में इनकी संख्या बहुत तेजी से बढ़ती है केचुआ अपने वजन से 5 गुना ज्यादा मिट्टी खाकर मल करता है । जब खेत की मिट्टी केंचुओं पेट से गुजरती है तो उसे अनेकों प्रकार के एंजाइम मिल जाते हैं जिसके कारण केंचुओं के मल से मिट्टी की उर्वरा शक्ति बहुत बढ़ जाती है ।
अरस्तू व डार्विन
प्रसिद्ध विचारक अरस्तू ने केंचुओं को मिट्टी की आंत नाम से संबोधित किया था। डार्विन के अनुसार किसी भी उपजाऊ भूमि को ऊपरी सतह प्रतिवर्ष आधा इंच के केचुओं द्वारा बढ़ाई जाती है। केंचुओं को जैविक खाद तैयार करने की फैक्ट्री माना जाता है।
रासायनिक खेती ने क्या किया ?
रासायनिक खेती ने अधिकांश केचूओं को मौत के घाट उतार दिया। यूरिया, डीएपी, कीटनाशकों आदि रसायनों के डर से रहे सहे केंचुए आज जमीन के 15 से 20 फीट नीचे चले गए हैं।
केंचुए करते क्या हैं?
देशी केंचुए कैसे काम करते थे। एक एकड़ में लगभग सात लाख केंचुए काम करते थे। वे जमीन को खोदते जाते थे और जिस छेद से जाते थे, उससे वापस नहीं आते थे और दूसरे छेद बनाते थे।
इस प्रकार असंख्य छेद बनाते चले जाते थे। अनुमान कीजिए जिस खेत में सात लाख बिन पैसे के मजदूर काम करते हों, उस खेत में कितने छेद बनेंगे। इन छिद्रों द्वारा ऑक्सीजन जमीन को मिलती थी, जिससे जमीन की ताकत बढ़ती थी।
बाढ़ रोकने में सहायक
हम खेतों के चारों ओर बारिश के पानी को रोकने के लिए मेढ़ बना देते हैं। अब जिस खेत में केचुए होते हैं, बारिश आने पर बुलबुले उठते हैं और सारे खेत का इकठ्ठा पानी धरती में चला जाता है। अधिक जलभराव से पौधों पर ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ता था क्योंकि कुछ ही समय में केचुओं के द्वारा बनाए गए छिद्रों से सारा पानी जमीन के नीचे चला जाता था। रासायनिक खेती ने हमारे इस कुदरती विज्ञान को खत्म कर दिया। पहले ज्यादा बारिश होती थी और बाढ़ भी कम आती थी। अब क्या होता है, बारिश तेज आ गई तो बाढ़ आ गई। सारा पानी नदियों में चला जाता है।
सूखा रोकने में सहायक
सूखा पड़ गया तो अकाल पड़ गया। इसके पीछे हमारा ही योगदान है। केचुओं की सक्रियता के कारण जमीन के पानी को सोखने की क्षमता बढ़ जाती है जिससे लंबे समय तक पौधों को पानी की उपलब्धता बनी रहती है, जिससे सूखा पड़ने के समय भी पौधों के स्वास्थ्य पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ता।
रासायनिक खेती ने किया कबाड़ा
हमने यूरिया, डीएपी, कीटनाशकों आदि रसायनों को डाल डाल कर जमीन की परत इतना कठोर कर दिया कि जमीन के पानी पीने के छिद्रों को ही बंद कर दिया। केचुएं जो सुराख बनाते थे वे खत्म कर दिए ।
शुद्ध पेय जल की प्राप्ति
भगवान का बनाया गया जल संचयन प्रणाली या हार्वेस्टिंग सिस्टम इतना जबरदस्त था कि जितनी बारिश होती थी, वह केंचुओं द्वारा बनाए रखने वाले असंख्य छिद्रों से धरती मां के पेट में चली जाती थी और हमें शुद्ध पेयजल मिलता था। आज से 20 वर्ष पहले हम कहीं भी पानी पी लेते थे, कुछ भी नहीं बिगड़ता था और अब बंद बोतल का इस्तेमाल करने के लिए विवश हैं।
प्राकृतिक खेती का आधार
प्राकृतिक खेती में भूमि में रहने वाले देसी केचुएं न केवल जमीन में नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करते हैं, बल्कि भूमि के भौतिक गुणों में भी उल्लेखनीय सुधार करते हैं। यह केंचुए देसी गाय के गोबर व गोमूत्र में बहुत तेजी से बढ़ते हैं।
विदेशी केंचुआ की सीमाएं
एक आकलन के अनुसार कम लागत प्राकृतिक खेती से विकसित एक एकड़ भूमि में सात से दस लाख केचुएं दिन-रात मजदूरों की तरह कार्य करते हैं। इसके विपरीत वर्मी कंपोस्ट बनाने वाले आयातित केंचुओं आईजेनिया फोटिडा में ये गुण नहीं होते। ये केंचुये मिट्टी नहीं खाते, केवल गोबर व काष्ठ पदार्थ खाते हैं ।
वैज्ञानिक शोधों में पाया गया है कि केंचुए की खाद बनाने वाला विदेशी केचुआ आइजेनिया फोटिडा अधिक मात्रा में भारी तत्व या हेवी मेटल्स जैसे शीशा, पारा, आर्सेनिक कैडमियम, निकल, क्रोमियम आदि अपने शरीर में धारण करता है और पौधों को उपलब्ध करा देता है जो मानव स्वास्थ्य, भूमि और पर्यावरण के लिए बहुत घातक है। ये विदेशी केचुये 16 डिग्री से नीचे और 28 डिग्री के ऊपर के तापमान पर जीवित नहीं रहता और भूमि में सुराख करके गहरी परतों में नहीं जाता है। अगर इन्हें प्राकृतिक रूप से खेत में छोड़ दिया जाए तो इनका जीवित रहना कठिन हो जाता है।
देसी केंचुओं के कार्य
इसके विपरीत देसी केंचुआ जीरो डिग्री से 52 डिग्री तापमान पर कार्य करता रहता है और मौसम व वातावरण के परिस्थितियों के अनुसार जमीन में 15 फीट तक ऊपर नीचे आता जाता रहता है तथा नीचे के परतों से पोषक तत्वों को लाकर पौधों की जड़ों को उपलब्ध करा देता है।
देसी केंचुआ भूमि में सुराख करता है तो सुराखों की दीवारों को अपने अंदर से निकले वर्मीवाश से लीपता हुआ चलता है जिससे सुराख लंबे समय तक जमीन में बने रहते हैं और भूमि में अधिक वर्षा या सूखे की स्थिति में जल या नमी का संचरण करते रहते हैं। केचुएँ जब जमीन के अंदर ऊपर नीचे आवागमन करते हैं तो इससे भूमि में स्पंदन होता है । देसी केचुएँ मानो भूमि की जुताई कर रहे हो । यह भूमि के अंदर छेद कर अपनी विष्ठा से जमीन की सतह को खाद्य तत्वों से समृद्ध बनाते हैं।
आच्छादन
केंचुओं की और अधिक सक्रियता बढ़ाने के लिए भूमि की सतह पर आच्छादन करना चाहिए। भूमि में नमी और अंधेरा होने से इनको तेजी से पनपने और काम करने के लिए अच्छा वातावरण मिल जाता है फिर ऊपर से इनको पक्षियों का खतरा भी नहीं होता, जिससे ये तनाव मुक्त होकर रात दिन जमकर काम कर भूमि की उर्वरा शक्ति को बहुत अधिक बढ़ा देते हैं।