धन के पीछे अंतहीन बेतहाशा दौड़ से कैसे बचें ?
नीड व डिजायर में अंतर
हमें नीड और डिजायर में अंतर को समझना चाहिए। जरूरत बहुत कम की रहती है और शौक का कोई ओर-छोर नहीं होता । हमने पैसे को खुशी से जोड़ दिया है जबकि कम से कम पैसे में भी आनंद से रहा जा सकता है।
कम्फर्ट व लग्जरी
कंफर्ट और लग्जरी के खिलाफ नहीं होना चाहिए पर हमें इसके बगैर भी जीने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। आखिर हम सब कभी न कभी बगैर लग्जरी के या कम लग्जरी के भी तो रहे हैं।
डिजायर को भी नीड का नाम
नीड को कम से कम रखना चाहिए पर हम अपनी नीड को बढ़ाते चले जा रहे हैं जिससे हमारी ग्रीड भी बढ़ती जा रही है। हमने अपनी डिजायर को भी नीड का नाम दे दिया है। अब समझदारी से अपनी नीड को कम रखना है। जितनी हमारी नीड कम होगी, हमारी खुशी इतनी ज्यादा होती है। पर अफसोस है कि सामान्यतया हम इसको उल्टा समझते हैं।
डिजायर को भगवान माना और नीड को भाव नहीं
नीड एवं लग्जरी के अंतर को हम समझते ही नहीं है। डिजायर को भगवान मान लेते हैं और नीड को भाव ही नहीं देते। नीड तब समझ में आती है, जब वह होती नहीं है । सांस का महत्व तब समझ में आता है, जब ऑक्सीजन नहीं होती।
अर्थहीन, अंतहीन व बेतहाशा दौड़
डिजायर का कारण ही हम रेस्टलेस होकर एक अंतहीन, बेतहाशा दौड़ लगाते रहते हैं। हमें समझदारी से अपनी नीड को कम रखना चाहिए जिससे हम इस निरर्थक दौड़ से बच सकें। बुराई पैसे में नहीं है, उसके पीछे भाग रहे लोगों में हैं जिन्होंने पैसे को भगवान मान लिया है।
धनार्जन वैल्यू फ्री नहीं हो सकता।
धन कमाना कभी भी वैल्यू फ्री नहीं हो सकता। अधिकांश लोगों का एकमात्र उद्देश्य धन संग्रह ही हो गया है चाहे वह नैतिक तरीके से आए या अनैतिक तरीकों से। व्यक्ति को अनैतिक बनाने में सबसे ज्यादा योगदान पैसे का है।
धन उपयोगी टूल की तरह
मनी को लक्ष्य नहीं मानना चाहिए, वह तो लक्ष्य तक पहुंचने की प्रक्रिया है। धन अपनी आवश्यकताओं, शौक को पूरा करने एवं समाजोपयोगी काम को करने के लिए उपयोगी टूल की तरह है।
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अरबपति भी भिखारी से बदतर
अरबपति भी भिखारी से भी बदतर हो सकता है क्योंकि वह हमेशा इस ताक में रहता है कि अगला रुपया कैसे आए ?
कम वस्तुएं अधिक खुशी
हमने अपने घर को खूब सामानों से भर रखा है। यूजलेस चीजों के कबाड़ से । ज्यादा चीजें इकट्ठा करने से हमें खुशी नहीं मिलती । जितनी कम चीजें होंगी, उतनी ही अधिक खुशी मिलेगी।
धन की तीन गति दान, नाश, भोग
* पुरानी कहावत है कि धन की तीन गति होती है दान, भोग और नाश। दान व भोग नहीं किया तो यह नष्ट हो जायेगा। सभी धर्मों में दान के लिये कहा गया है। हम इसे भूलते जा रहे हैं जबकि भोगवादी पश्चिमी देश इसे अपनाते जा रहे हैं।
अपरिग्रह क्या है ?
* हमारे अधिकांश धर्मों में अपरिग्रह पर बहुत बल दिया गया है जिसका अर्थ है कि अति संचय नहीं करना है।
धन वस्तु की तरह न होकर ऊर्जा की तरह
* धन एक बहता हुआ झरना है, इसीलिये इसे करेंसी कहते हैं। करेंसी यानि करंट, प्रवाह। अतः धन को वस्तु की तरह न देखें, ऊर्जा की तरह देखें।
धन जेब में रखें, दिमाग में नहीं
* धन आता है और जाता है, ठीक वैसे ही जैसे खुली खिड़की से हवा का झोंका आता है और चला जाता है पैसे को अपनी जेब में ही रखें, उसे दिमाग में न प्रवेश करने दें। जेब में पैसा जीवन को आसान और अच्छा बनाता है जबकि दिमाग में पैसा तमाम विकृतियों को जन्म देता है।
धन पकड़ कर न बैठे
* धन को खर्च नहीं किया तो झरना रूक जाता है। लेकिन अगर जो लोग इसे पकड़ के रखते हैं उनका झरना सूख जाता है।
सामाजिक कार्यों में धन का व्यय
* पहले के लोग जब भी धन उनके व उनके परिवार की आवश्यकता से अधिक हो जाता था, तब उसे सामाजिक कार्यों में लगाने लगते थे जैसे धर्मशाला बनाने, तालाब बनाने आदि जैसे समाज हेतु उपयोगी कार्यों में।
स्वकेंद्रित
* अब हम स्व केंद्रित हो गये हैं। अब धन को भोग विलास में उड़ा देते हैं या दबा कर बैठ जाते हैं। उसे समाज उपयोगी कार्यों में नहीं लगाते।
धन ऊर्जा का रूपांतरण जरूरी
* धन एक ऊर्जा की तरह है इसे इस्तेमाल नहीं किया तो यह नष्ट हो जायेगा। इसको समाज उपयोगी कार्यों में रूपांतरण अवश्य किया जा सकता है जो आपको संतुष्टि व कीर्ति अवश्य प्रदान करेगा।
टूरिस्ट की तरह
याद रखिये हम इस प्लेनेट पर टूरिस्ट की तरह आये हैं मात्र कुछ वर्षों के लिये ही। अंत में सभी को खाली हाथ ही जाना है। इसलिये सरप्लस धन को समाज उपयोगी कार्यों में लगायें।
चार पुरुषार्थ
* भारतीय परंपरा में जीवन का ध्येय चार पुरुषार्थों को माना गया है, ये हैं धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। धर्म का ज्ञान होना जरूरी है तभी कार्य में कुशलता आती है और कार्य में कुशलता से ही व्यक्ति जीवन में अर्थ अर्जित कर पाता है।
चार पुरुषार्थों को दो भागों में बांटा गया है पहला है धर्म और अर्थ, दूसरा है काम और मोक्ष। काम का अर्थ है सांसारिक सुख और मोक्ष का अर्थ है सांसारिक सुख-दुख और बंधनों से मुक्ति। काम और मोक्ष के साधन है अर्थ और धर्म। अर्थ से काम और धर्म से मोक्ष साधा जाता है।
एकमात्र लक्ष्य पैसा कमाना
* आजकल अधिकांश लोगों का एकमात्र उद्देश्य हो गया है पैसा कमाना, भले ही उसके लिए कोई भी कीमत चुकानी पड़े। ऐसा लगता जैसे उनका और कोई लक्ष्य हो ही नहीं। पैसा कमाना हमारी पूरी इंसानी चेतना पर हावी हो गया है। हम अपनी पूरी प्रतिभा व ऊर्जा केवल पैसा कमाने में व्यय कर रहे हैं ।
* अधिकांश मनुष्यों की इच्छाएं कभी पूरी नहीं होती है। इसीलिए साहित्य में धन के बारे में कबीर को कहना पड़ा,
माया महा ठगनी हम जानी
यह देखा गया है कि धन जितना आता है उसकी हवस और बढ़ती जाती है , इसीलिए आदि शंकराचार्य को कहना पड़ा
जगत मिथ्या ब्रह्म सत्यम
किंतु भूखे भजन न होय गोपाला,
जगत के कार्य संपन्न करना भी तो अनिवार्य है।
इसलिए भागवत गीता में कहा गया है कि
अपने कर्म को निष्काम भाव से करते रहो।
धन खूब कमाएं, पर अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ अपने शौक पूरा करना, समाज कल्याण के कार्य करना और दुआएं कमाना भी बहुत जरूरी है।